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कविता

पहाड़ पर खड़ा होकर देखता हूँ तुम्हें

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति


मैंने तुमको पहाड़ पर खड़े होकर देखा
मैंने तुमको कार की खिड़की से देखा
मोर और हिरण के फोटो लिए
किसानों को काम करने के अलावा
पहाड़ और जंगल के घने पेड़ों को देखा
मेरे पास सिर्फ देखना ही देखना बचा था

मैं देखने के अलावा और क्या कर सकता था
कि मैं तुममें से आर पार हो जाऊँ
तुम्हारे जेहन जैसे फैलाव में पड़े हैं
कुछ रद्दी कागज, प्यार के दो पल और एक आह
ओह तुम कितनी अच्छी लगती हो

मैंने तुमको जिया और मैं तुममें रहा
तुम नहीं फेंकती हो मुझे रद्दी कागज की तरह
मैं छोड़ जाता हूँ तुम्हें काम का बहाना देकर

शहर में रह कर भूल चुका हूँ फिर भी
पहाड़ जंगल और नदी क्यों याद आते हैं?


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